यूपी चुनाव: मायावती की कम सक्रियता के कारण होगी दलित वोटों पर सेंध मारी, आसान होगी प्रदेश में सत्ता की राह
कबीर बस्ती न्यूज:
लखनऊ: उत्तर प्रदेश में चुनावी सरगर्मियां चरम पर हैं। राजनीतिक दल जातीय समीकरण साधने के लिए हरसंभव प्रयास कर रहे हैं। इस बार का सियासी परिदृश्य देखते हुए ऐसा लग रहा है कि यूपी की सत्ता बिना जातीय समीकरण साधे पाना संभव नहीं है। यही कारण है कि समाजवादी पार्टी ने पिछले दिनों स्वामी प्रसाद मौर्य, धर्म सिंह सैनी, दारा सिंह चौहान, बृजेश प्रजापति समेत कई बीजेपी नेताओं को अपने दल में शामिल कराया।
सपा ने यह संदेश देने की कोशिश की कि पिछड़ा समाज उनके साथ है। बता दें कि उत्तर प्रदेश में दलित वोट काफी महत्वपूर्ण है और प्रदेश में 21% के करीब दलित वोटबैंक है। पिछले 25 सालों से यह वोट अमूमन बहुजन समाज पार्टी के साथ रहा। लेकिन 2014 के बाद इसमें टूट हुई और यह वोट भी दो भागों में बंट गया, जाटव दलित और नॉन जाटव दलित। हालांकि एक भाग मायावती के साथ 2019 लोकसभा चुनाव तक था और अभी भी है।
निर्णायक दलित आबादी: यूपी में दलितों की कुल आबादी में 55% आबादी जाटव दलितों की है। जबकि बचे हुए 45% में कन्नौजिया, कोल, पासी, खटिक, धोबी आते हैं। जाटव दलितों के बाद दलितों में सबसे अधिक 16% पासी आते हैं और 16% कन्नौजिया और धोबी आते हैं। बची हुई 13% संख्या में कोल, खटीक, धोबी, धानुक और अन्य लोग आते हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से ही बीजेपी ने नॉन जाटव दलितों की एक बड़ी आबादी में सेंध लगाई और बीजेपी के 2014 लोकसभा चुनाव, 2017 विधानसभा चुनाव और 2019 लोकसभा चुनाव में बंपर जीत का यह एक बड़ा कारण भी बना।
हालांकि इन चुनावों में देखा गया कि जो 55% जाटव दलितों की आबादी है वह 2014 लोकसभा चुनाव, 2017 विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव में भी मायावती के साथ बना रहा। इसी कारण 2014 के लोकसभा चुनाव में वोट प्रतिशत के मामले में 2017 विधानसभा चुनाव में भी बसपा दूसरे नंबर पर थी, भले ही बसपा को सीटें सपा से कम मिली हो। वहीं पर 2019 के लोकसभा चुनाव में भी बसपा का वोट शेयर समाजवादी पार्टी से अधिक था।
मायावाती की चुनाव से दूरी: अगर हम 2022 चुनाव प्रचार को देखे तो मायावती ने अभी तक चुनाव प्रचार को पहले की तरीके से नहीं शुरू किया है। 15 जनवरी जिस दिन मायावती का जन्मदिन था उस दिन उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर अपनी पार्टी की नीतियों को बताया और कार्यकर्ताओं से कहा कि वह लोगों के बीच जाए और बसपा की नीतियों के बारे में बताए। अब बड़ा सवाल ये उठता है कि अगर मायावती 2022 के चुनाव में रुचि नहीं ले रही है तो यह दलित वोट कहां पर जाएगा? उत्तर प्रदेश में दशकों बाद ऐसा लग रहा है कि चुनाव सिर्फ दो दलों के बीच हो रहा है। ऐसा लग रहा कि मैदान में सिर्फ भारतीय जनता पार्टी और समाजवादी पार्टी ही लड़ाई लड़ रहे हैं।
बीजेपी ने नॉन जाटव दलितों को अपनी ओर आकर्षित किया: 2014 के बाद बीजेपी ने जब नॉन जाटव दलितों के वोट को अपनी तरफ खींचने में कामयाब रही। उसके बाद बीजेपी का रुख स्पष्ट हो गया कि बीजेपी का ध्यान नॉन जाटव दलितों पर रहेगा। इसके बाद सरकार द्वारा जिन योजनाओं को धरातल पर उतारने का प्रयास किया गया उसमें दलितों का भी विशेष ध्यान रखा गया। बीजेपी के जिला स्तर के नेताओं को भी निर्देश दिया गया कि दलितों का ध्यान रखें और जो लोग भी योजनाओं के पात्र हो उनको इसका लाभ मिले। बीजेपी को चुनाव में इनका फायदा भी मिला।
2014 के लोकसभा चुनाव, 2017 विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा के चुनाव में बीजेपी ने यूपी में एक नया ट्रेंड सेट किया कि 40 फ़ीसदी या उसके अधिक वोट लाओ और प्रदेश में राजनीतिक ताकत हासिल करो। अगर हम 2007 और 2012 की बात करें तो बसपा और सपा ने पूर्ण बहुमत की सरकार तो बनाई लेकिन वोट प्रतिशत 30 फ़ीसदी के करीब ही रहा। लेकिन आने वाले चुनाव में सपा को एहसास हो गया है कि अगर 2022 में सत्ता के करीब पहुंचना है तो वोट प्रतिशत 35% के पार ले जाना पड़ेगा।
इसी को देखते हुए सपा पासी दलितों को अपनी तरफ खींचने की कोशिश में लगी हुई है। पासी दलितों की आबादी प्रदेश में कुल दलितों की आबादी में से 16 फ़ीसदी है। इंद्रजीत सरोज, आर के चौधरी और अन्य जिलों में भी कई पार्टी नेताओं को सपा ने पासी दलितों को सपा से जोड़ने के लिए लगाया है।
क्या है अरक्षित सीटों का गणित?: 2017 के विधानसभा चुनाव में 86 सीटें आरक्षित थी। इसमें 84 सीटें एससी समुदाय के लिए जबकि 2 सीटें एसटी समुदाय के लिए आरक्षित हैं। बीजेपी गठबंधन ने पिछली बार 76 आरक्षित (बीजेपी 70, अपना दल (एस) 3, सुभासपा 3) सीटें जीती थी। वहीं समाजवादी पार्टी ने 7, बसपा ने 2 और एक सीट पर निर्दलीय उम्मीदवार को जीत हासिल हुई थी। कुल मिलाकर बीजेपी ने 87 फ़ीसदी से अधिक आरक्षित सीटें जीती और प्रदेश में बीजेपी की सरकार बनी।
वहीं 2012 विधानसभा चुनाव में 85 सीटें आरक्षित थी जिसमें 58 सीटों पर सपा, 15 सीटों पर बसपा, 4 सीट पर कांग्रेस, 3 सीट पर बीजेपी, आरएलडी ने 3 और निर्दलीय उम्मीदवारों ने 2 सीटों पर जीत दर्ज की थी। इस तरह कुल 67 फ़ीसदी सीटें सपा ने जीती थी और प्रदेश में सपा की सरकार बनी।
जबकि 2007 के विधानसभा चुनाव में 89 सीटें आरक्षित थी। उस चुनाव में बसपा ने 61, सपा ने 13, बीजेपी ने 7, कांग्रेस ने 5, आरएलडी और राष्ट्रीय स्वाभिमान पार्टी ने 1 और एक सीट पर निर्दलीय उम्मीदवार ने जीत दर्ज की थी। 2007 में बीएसपी ने 68 फ़ीसदी आरक्षित सीटें जीती और प्रदेश में पूर्ण बहुमत की बीएसपी की सरकार बनी थी।