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शपथग्रहण का रोड-शो, शक्ति प्रदर्शन और आज का लोकतंत्र

कबीर बस्ती न्यूज के संपादक के कलम से —

आज का भारतीय संविधान सत्ताधारी नेताओं के पैरों तले कुचला जा रहा है। जब भारतीय संविधान ही सिसक रहा हो तो लोकतंत्र का क्या हाल होगा ? जिनके सामने देश व प्रदेश के सर्वोच्च पदों पर आसीन लोग पीएम और सीएम की जी हुजूरी करते नजर आतें है। चुनाव जीतने के बाद ईश्वर-अल्लाह के नाम पर संविधान की शपथ लेने की 75  साल पुरानी परम्परा लगातार मंहगी होती जा रही है.अब शपथग्रहण समारोह भी ‘रोड-शो ‘  में तब्दील हो गए हैं .आज का सवाल यही है कि क्या एक शपथ ग्रहण के समारोह राजभवनों से हटकर सड़कों पर आयोजित कराये जाने चाहिए ,क्या इन समारोहों  पर होने वाला खर्च फिजूलखर्ची नहीं है ? ऐसे समारोह मे खर्च होने वाला पैसा किसी नेता जी का निजी व्यवस्था नही बल्कि जनता की गाढी कमाई का हिस्सा है।
अतीत में झांकें तो पाएंगे कि प्रधानमंत्रियों के शपथ विधि समारोह राष्ट्रपति भवन में और मुख्यमंत्रियों के शपथ विधि समारोह राजभवनों में ही आयोजित होते रहे हैं .पहले ये समारोह राजप्रासादों के बड़े कक्षों में होते थे फिर इन्हें धीरे-धीरे  राजप्रासादों के प्रांगणों में ले आया गया .प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का शपथ विधि समारोह आधीरात को हुआ लेकिन बाद में तमाम शपथविधि समारोह दिन के उजाले में होते आये. पहले इन समारोहों में चकाचौंध और जनता की भागीदारी नहीं होती थी,ये समारोह सरकारी समारोह होते थे लेकिन देश में जबसे गैर कांग्रेसवाद की हवा चली है और दूसरे दलों के लोग सत्ता में आने लगे हैं तब से शपथविधि समारोहों की शक्ल-सूरत और सीरत भी बदल गयी है .
पहले शपथ विधि समारोहों में अतिथियों की सूची में निर्वाचित प्रतिनिधि,प्रमुख राजनीतिक दलों के प्रमुख ,,राजनयिक और चुनिंदा गणमान्य नागरिकों को शामिल किया जाता था ,बाद में ये सूची लगातार लम्बी होती गयी और इसमें बहुत से ऐसे लोगों को शामिल कर दिया गया जिनका सियासत से कोई ताल्लुक नहीं है लेकिन वे किसी न किसी राजनीतिक दल के समर्थक हैं .2014  में पहली बार श्री नरेंद्र मोदी   का शपथविधि समारोह भव्यता के साथ आयोजित किया गया ,इसमें साधू,संत और पड़ौसी देशों के प्रमुख भी उसी तरह शामिल किये गए जैसे स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस पर किये जाते हैं.
शपथ विधि समारोहों में जनता की भागीदारी बढ़ाने के लिए इन समारोहों को राज भवनों से बाहर स्टेडियमों ,और दूसरे खुले मैदानों में आयोजित किया जाने लगा .शपथविधि समारोहों को ‘रोड-शो ‘  में बदलने का विरोध किसी राजनीतिक दल ने नहीं किया,क्योंकि सभी को ये रास आता गया .लेकिन इन समारोहों को भव्य-दिव्य बनाने का असल श्रेय भाजपा को जाता है .भाजपा के भव्य-दिव्य शपथ समारोह देखकर दूसरे दलों ने भी इनका अनुशरण किया और सपा,बसपा ही नहीं बल्कि  ‘आप ‘ जैसे नए नवेले दल भी शपथ विधि समारोहों को ‘रोड-शो ‘ की तरह करने के लोभ से अपने आपको नहीं बचा पाए .हाल के दिनों में आपने पंजाब में और उत्तर प्रदेश में अभूतपूर्व शपथविधि समारोह अपनी आँखों से देखे होंगे .
हमारे जमाने में शपथ विधि समारोह का सीधा प्रसारण   शायद ही कभी किया जाता हो,ज्यादा से ज्यादा क्षेत्रीय और लोकल समाचार  चैनल इस तरह के समारोहों का सीधा प्रसारण करते थे ,लेकिन लखनऊ में श्री आदित्यनाथ योगी के शपथविधि समारोह का सीधा प्रसारण करने की सभी समाचार चैनलों में जैसे होड़ लगी हुयी थी .गनीमत है कि राज्य सभा टीवी चैनल ने इस शपथविधि समारोह के सीधे प्रसारण के लिए अपना सीधा प्रसारण नहीं रोका ,अन्यथा शुक्रवार की दोपहर आपके पास देखने के लिए कुछ और था ही नहीं .
शपथविधि समारोहों में कुछ ख़ास होता नहीं है. शपथ की एक लिखी  -लिखाई टीप होती है जिसे राज प्रमुख पहला शब्द ‘ मै’ पढ़कर छोड़ देता है और फिर शपथ ग्रहीता उसे दोहराता है .यूपी में कल पहली बार एक साथ चार-चार मंत्रियों को ये शपथ लेते देखा गया .कुछ राज्यों ये काम एक साथ ही सम्पन्न   हो जाता है .लेकिन जब शो को लंबा खींचना हो तो एक-एककर शपथ दिलाई जाती है .पहले नए मंत्रियों की मिमियाते हुए कुछ लोग देखते थे ,अब हजारों ही नहीं बल्कि लाखों लोग देखते हैं या उन्हें ये सब दिखाया जाता है .हमारे अपने शहर के लोगों के पास तक यूपी के शपथविधि समारोह के निमंत्रण पात्र आये थे,जिन्हें अब फ्रेम कराकर रखा जा रहा है ताकि सनद रहे .
सवाल ये है कि क्या इन लगातार महंगे होते जा रहे शपथविधि समारोहों का कोई औचित्य है ? क्या ये फिजूलखर्ची और करदाता के पैसे का दुरुपयोग नहीं है ? क्या इसे रोका नहीं जा सकता ? जाहिर ये सवाल केवल भाजपा से नहीं है बल्कि उन सभी राजनीतिक दलों से हैं जो शपथविधि समारोहों को ‘रोड-शो ‘में तब्दील करने की होड़ में शामिल हैं हाल के समारोह उदाहरण भर हैं .सवाल ये है कि क्या जनादेश हासिल करने का मतलब सरकारी खजाने का मनमाना उपयोग करना होता है ? क्या ये सब नैतिक नहीं है ? सुधार के नाम पर जब देश में मृत्युभोज और विवाह समारोहों में हजारों की भीड़ आमंत्रित करने के प्रयोगों को हतोत्साहित करने के यत्न किये जा रहे हैं, कोरोनाकाल में शादी -समारोहों को लगातार छोटा किया गया है तब क्या जरूरी नहीं था की यही संयम शपथविधि समारोहों में भी बरता जाता ?
दुर्भाग्य ये है कि अब इन राजनीतिक समारोहों में देश के प्रधानमंत्री तक शामिल होने लगे हैं,जिसे शपथविधि समारोह कोई राजनीतिक दल का कार्यक्रम हो. प्र्धानमंत्री आज भी रोजाना पीएमओ में बैठकर दर्जनों समारोहों में डिजिटल माध्यमों से उपस्थित होते हैं ,क्या वे लखनऊ में आये बिना योगी जी को आशीर्वाद नहीं दे सकते थे .आखिर इस शपथविधि समारोह में उनकी भूमिका थी ही क्या ? शपथ राजयपाल को दिलाना थी ,शपथ योगी जी को लेना थी .ऐसे समारोहों में प्रधानमंत्री का क्या क्या काम ?बेहतर होता की शपथ लेकर योगी जी प्रधानमंत्री जी का आशीर्वाद लेने अपने पूरे मंत्रिमंडल के साथ दिल्ली जाते .लेकिन हमारे-आपके बेहतर सोचने से सब बेहतर नहीं हो सकता,बेहतर वो ही है जो सत्तारूढ़ दल सोचें,चाहे फिर भाजपा हो,आप हो या अतीत की कांग्रेस .जब पूरे कुएं में भांग घुल चुकी हो तब कोई क्या कर सकता है ?
मुझे पता है कि आज भी मेरे इस आलेख पर मेरे प्रिय मित्रों में से तमाम मित्र मेरे ऊपर राशन-पानी लेकर पिल पड़ेंगे,किन्तु मुझे इसकी फ़िक्र नहीं है. मेरी फ़िक्र में वे तमाशे हैं जो लोकतंत्र और लोकप्रियता के नाम पर जनधन से किये जा रहे हैं .मेरा काम हस्तक्षेप करने का है सो मै करता रहूंगा,बिगाड़  के डर से कोई सच बोलना छोड़ता है भला !