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घरों से गायब होता जा रहा हैं पानी ठंडा करने वाला मटका,  विलुप्त होते जा रहे मिट्टी से बने देशी बर्तन 

फ्रिजर की खपत से खत्म होता जा रहा कुम्हारों का पुश्तैनी रोजगार 
नवाबी नगरी से विदा होती जा रही अनमोल धरोहरें, प्यास बुझाने के लिए लोग अब नहीं लेते घड़ा,सुराही का सहारा  
वीना गोस्वामी
कबीर बस्ती न्यूज:
लखनऊ। घड़े लेलो, सुराही लेलो, ये देशी फ्रिज लेलो…  गर्मियाँ आते ही अब ऐसी आवाजें नहीं सुनाई देती हैं, जबकि गर्मी आने के साथ ठंडे पानी की प्यास लगना स्वाभाविक है। पहले ठंडे पानी के लिये घर-घर में घड़े व सुराही रखने का चलन था। इसके साथ ही रेलवे स्टेशनों,बस अड्डों के बाहर घड़े व डिजाईनदार सुराही की दूकानें सजी रहती थी। वही शहर के बाहरी इलाकों में कुम्हार मिट्टी के तमाम बर्तन, खिलौने,घड़े व सुराही बनाते नज़र आते थे। लेकिन मौजूदा दौर पूरी तरह इलेक्ट्रानिक होता जा रहा है, जिसमें यह विधा करीब समाप्त हो चली है। लेकिन ग्रामीण इलाकों में ठंडे पानी के लिये अभी भी घड़े इस्तेमाल में हैं।
राजा महाराजों व नवाबीकाल में जगह-जगह पियाऊ लगाए जाते थे,जहाँ शुद्ध घड़े के पानी का इंतजाम होता था। जानकार बताते हैं, कि मिट्टी के बर्तन बनाने की कला का इतिहास उतना ही पुराना है जितनी हमारी सभ्यता है। वर्तमान में तमाम पुरानी जगहों पर खुदाई में मिट्टी के बर्तन जैसे सुराही,सिकोरी,दीये, कुल्हड़ व खिलौने आदि मिलते रहते हैं।
डाक्टर बताते हैं, कि मिट्टी के बर्तनों में पानी प्रदूषित नहीं होता एवं हर तरह से घड़े व सुराही का पानी शुद्ध व ठंडा होता है। मिट्टी का क्षारीय गुण पानी की अम्लीयता खत्म करता है, इसी कारण पानी में मीठापन व सौंधापन होता है। मिट्टी के प्राकृतिक गुणों के कारण ही मिट्टी से बने बर्तनों में खाने-पीने की चीजें प्रेजर्व करने में इस्तेमाल होता था। लेकिन वर्तमान में फ्रिज के इस्तेमाल की वजह से घड़ों का प्रयोग बहुत कम हुआ है। लेकिन गाँव-देहात में आज भी घड़ों का इस्तेमाल हो रहा है। साफ-सफाई व प्रदूषण से बचाव के लिए मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग होना ही चाहिये। मिट्टी के बर्तनों की बिक्री और उसके इस्तेमाल पर कबीर बस्ती न्यूज संवाददाता ने एक कुम्हार से बातचीत की,पेश है उसकी ये खास रिपोर्ट।
“अभी तो चाक पे जारी है रक़्स मिट्टी का,
अभी कुम्हार की नीयत बदल भी सकती है”।
अलीना इतरत का ये मशहूर शेर जिसमें शायरा ने ये बताना चाहा है, कि एक कुम्हार चाक पर मिट्टी के बर्तन बनाते समय अपने बनाएं बर्तन को ऐन वक्त पर बदल भी सकता है, लेकिन अब समय और हालात को देखें तो इस शेर के मायने बदलते नज़र आ रहे हैं, क्योंकि मौजूदा वक्त में कुम्हार की नीयत सच में अपने इस पुश्तैनी काम से बदलती जा रही है, जिसकी वजह है वर्तमान में तमाम चीजों का हाईटेक होना हैं। ऐसे में कुम्हार की नीयत चाक पर बन रहे बर्तन को बदलने की क्या होगी बल्कि हालात के मद्देनज़र उसे अपने रोजगार को बदलने की नीयत ज़रूर बनती जा रही है।जिसकी ताजी बानगी ये है, कि नवाबी नगरी के ऐतिहासिक घंटाघर पर मिट्टी के बर्तनों की दुकान सजाये बैठे जैतपुर निवासी इमरान ने अपनी आपबीती बताते हुए उजागर कर दी। इसी कड़ी में संवाददाता को इमरान ने बताया कि मिट्टी के बर्तन बनाना उनका खानदानी पेशा है। आगे कहा कि वह हर साल गर्मी के मौसम में लखनऊ आते हैं, और यहां एक सप्ताह दुकान लगाते है।इमरान बताते है, कि इस काम में अब सिर्फ 25 फीसद की बिक्री बची है,और 75 प्रतिशत की गिरावट आ चुकी हैं। उन्होंने बताया कि उनके पास आधा दर्जन से ज्यादा तरह के मिट्टी के बने बर्तन मौजूद हैं जिसमें कप,गुल्लक, मटकी, हांडी, प्याला, सिकोरी, मटका, अगरदान,लुबानदान, घड़ा, रकाबी और दीये हैं। बताया कि तालाब की काली मिट्टी से ये सब बनाते हैं और फिर  उसे भठ्ठी में पकाते हैं। बोले कि ये एक दम कच्चा कारोबार है, जिसमें फायदा कम और नुकसान का अंदेशा ज्यादा बना रहता है।बड़ी हिफाज़त से माल यहां तक लाना पड़ता है हाफ डाला में पैरा बीछाकर लाते है, जिससे बर्तन टूटे नहीं मगर फिर भी चढ़ाने-उतारने में कुछ टूट-फूट तो हो ही जाती हैं।
इमरान ने बताया कि बड़ा मटका 60 से 70 और छोटा 30 से 40 रूपए में बिकता हैं। ग्राहक आते ही नहीं जो आते भी है तो पैसा कम करवाते हैं इसलिए मजबूरी में जो ग्राहक आ जाते है उन्हें कम दाम में देना पड़ता है ताकि पूंजी निकली आए। इमरान ने आखिर में कहा उनकी नीयत अपने इस पुश्तैनी काम से बदलती जा रही है,और ऐसे हालात रहे तो रोजी-रोटी कमाने के लिए उन्हें कोई दूसरा काम करना पड़ेगा। काफी समय पहले राजधानी में कई जगहों पर घड़े, सुराही व अनेकों प्रकार के मिट्टी के बर्तनों की दुकानें सजी रहती थी, लेकिन अब एक्का-दुकानें ही नजऱ नहीं आती।